पिछले साल कार्ल किर्श्चमायर भारत आए थे जहां उन्हें भारतीय
डॉक्टरों के अनुभव समझने का मौका मिला। उन्होंने जो भी यहां देखा उससे वे आश्चर्यचकित रह गए। कार्ल
किर्श्चमायर मानते हैं कि हमारे देश में रूमेटोलॉजी साइंस पिछली शताब्दी के स्तर पर ही अटका हुआ है।
जर्मनी में कई हाईप्रोफाइल कॉन्फ्रेंस करने के बाद डॉक्टर कार्ल किर्श्चमायर ने भारतीय
मीडिया को एक इंटरव्यू देने के लिए सहमति दे दी। जाने-माने डॉक्टर को भारत के इलाज करने के तरीके
में क्या खराब लगा और वह यह क्यों कहते हैं कि भारत के जोड़ों के दर्द के मरीज कभी ठीक नहीं होंगे?
- जर्मन पत्रकारों के प्रश्नों का जवाब देते समय आपने कहा
था कि आप भारत में जो कुछ हो रहा है वह देख कर चौक गए थे। क्या आप इस बारे में और बता सकते हैं?
- देखिए सबसे पहले मैं यह बता दूं कि मुझे भारत देश, भारतीय संस्कृति या यहां के
लोगों से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन मैं यह बता दूं कि आपके देश में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल वाकई
में बहुत खराब है। यह कम से कम 20, और हो सकता है 30 साल पीछे चल रही हैं। कम से कम जब बात जोड़ों और
मस्क्यूलोस्केलेटल सिस्टम की बीमारियों की इलाज की आती है तो यही लगता है। हम यह कह सकते हैं कि
भारत में रूमेटोलॉजी एक विज्ञान के रूप में अस्तित्व में ही नहीं है।
चलिए देखते हैं भारतीय डॉक्टर इलाज के लिए कौन-कौन सी दवाई
लिखते हैं - Viprosal, Dolgit, Voltaren/Fastum जैल, Diclofenac, Teraflex, Nurofen और इसी तरह की
दूसरी दवाएं।
लेकिन इन दवाओं से जोड़ और कार्टिलेज ठीक नहीं होते, इनसे सिर्फ लक्षणों में आराम मिलता है
- मतलब इनसे दर्द, सूजन आदि बस कम होते हैं। अब जरा सोचिए कि शरीर के अंदर क्या हो रहा होता है। जब
हम कोई दवाई लेते हैं, या कोई एनेस्थेटिक जेल लगाते हैं यह हमें इंजेक्शन लगता है तो दर्द चला जाता
है। लेकिन जैसे ही दवा का असर खत्म होता है तुरंत दर्द वापस आ जाता है।
दर्द हमारे शरीर के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण संकेत होता है जो जोड़ों की बीमारियों की ओर
इशारा करता है। जब हम केवल दर्द को दबाते हैं तो खराब हो रहे जोड़ों पर और भी लोड पड़ता है। यह 3 से
5 गुना ज्यादा तेजी से खराब होने लगते हैं जिससे ऐसे बदलाव हो जाते हैं जिन्हें फिर से ठीक नहीं
किया जा सकता और वह पूरी तरह से अपाहिज भी हो सकता है।
यूरोप में जोड़ों के दर्द का यह तरीका 20 साल पहले ही बंद हो चुका है। वहाँ पेनकिलर केवल
तभी दी जाती है जब बहुत इमरजेंसी हो और इन्हें भी बहुत सावधानी से सीमित मात्रा में। जर्मनी में तो
इन्हें केवल डॉक्टर के पर्चे पर कड़े कंट्रोल में ही खरीदा जा सकता है।
तथाकथित 'कोंड्रोप्रोटेक्टर' तो पूरी तरह प्रतिबंधित है क्योंकि यह बेकार की दवाएं हैं और
इन पर पैसे खर्च करना बेवकूफी होता है।
आपके यहां के डॉक्टर और दवाई के दुकान वाले लोगों को अपाहिज बना रहे हैं! यह साफ है कि इन
महंगी पेनकिलर बेचने से लक्षणों में आराम जरूर मिल जाता है और ये इनके लिए बीमारी को हमेशा के लिए
ठीक कर देने से कहीं ज्यादा मुनाफे का सौदा होते हैं। लेकिन ये ऐसा करने की हिम्मत कैसे कर सकते
हैं!
- जर्मनी में जोड़ों के इलाज की क्या स्थिति
है?